मुक्तक-28 / रंजना वर्मा
कलम है हाथ में पर आज लिखने को तरसती है
तुम्हारी सांवरी सूरत सदा आँखों में बसती है।
कहाँ भेजूं तुम्हें ख़त जो तुम्हारा हाल ले आये
शमा जैसे पिघलती आँख भी मेरी बरसती है।।
यूँ तो रत्नों के आकर तुम
गोदी में लिये सुधाकर तुम।
भटके हर जीव मगर प्यासा
जल के हो खारे सागर तुम।।
जीवन जीना है अगर, हर पल लीजे जाँच
दीजे तो सामर्थ्य भर, लीजे केवल साँच।
है दुरूह बेहद कठिन, यह जीने का चाव
ढाई आखर प्रेम के, पढ़े जिंदगी पाँच।।
मुखौटों पर मुखौटे चढ़ रहे हैं
न जाने ओर किस हम बढ़ रहे हैं।
अपेक्षा है किसे अब सत्य पथ की
सभी आदर्श नूतन गढ़ रहे हैं।।
लोग कुछ खुद को ही भगवान बता देते हैं
हर किसी को न कभी अपना पता देते हैं।
बैठ ऊँचाई पे समझें कि हैं हाफ़िज़ उस के
हर बुलंदी पे वो हक अपना जता देते हैं।।