भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुक्तक-29 / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:27, 14 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=मुक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ये भारत भूमि पावन है तभी तो है मिला योगी
न टिक पाया कोई भी सामने है उस के प्रतियोगी।
बचाने देश की संस्कृति है जो आया नमन उसको
नजर में एक हैं उस के हो मानव या कि पशु भोगी।।
न अर्पण हो न तर्पण हो
हृदय का ही समर्पण हो।
जुड़ें दो दिल सदा ऐसे
न कोई भी विकर्षण हो ।।
लो फिर आयी होली है
पिसी ठंडाई होली है।
रंगों की बरसात हुई
होली है भाई होली है।।
हुरियारों की टोली है
लिये भंग की गोली है।
रंगों की बरसात करें
होली है भाई होली है।।
यादों की कंकरी पड़ी नयन में करक गयी
आये हुरियारे द्वार किवड़िया खरक गयी।
गगरी भर ले कर रंग छिपाये है मुखड़ा
छत से रँग डारे गोरी चूनर सरक गयी।।