मुक्तक-37 / रंजना वर्मा
जितने गुलाब हैं सजे हुए इस डाली में
उतनी लाली हो वीरों की यश लाली में।
जो स्वयं देश हित प्राण गंवाकर चले गये
यश गाथा उन की हो हर लहर निराली में।।
मेरे हृदयभवन में रघुनाथ रमा करना
अपराध हैं किये जो उन को भी' क्षमा करना।
जो भूल चूक की हो जो पापकर्म मेरे
उन सबको भुला देना शुभ कर्म जमा करना।।
इधर उधर की बात न कर
सपनों की बरसात न कर।
पूरी कर अपनी कसमें
वादों की सौगात न कर।।
इश्क एहसास का दरिया है बहा जाता है
कौन जाने कि कहाँ से ये कहाँ जाता है।
कोई' भूले से भी जो इसके करीब आ जाये
इस की' बहती हुई खुशबू में नहा जाता है।।
माया की बढ़ती माया को देखूँ डर जाऊँ
दर्शन दे घनश्याम सांवरे अपने घर जाऊँ।
भूल गयी हूँ राह नगर की बस तू याद रहा
श्याम सुंदर की पग रज पाऊँ जग से तर जाऊँ।।