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मुक्तक-62 / रंजना वर्मा

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ग़र हमसफ़र न साथ तो सिंगार किसलिये
बिन बात करें मीत से तकरार किसलिये।
जब देख लिया साँवरे का रूप इक नज़र
फिर और किसी का करें दीदार किसलिये।।

बहुत बूढ़े मगर माँ बाप हैं सम्मान तो कर लो
दिया है जन्म तो इस बात का अभिमान तो कर लो।
बड़े अरमान से जिस ने तुम्हे पाला बढ़ाया है
नहीं ताकत बची उसमें तुम इसका भान तो कर लो।।

अगर इंसान को इंसानियत से प्यार हो जाये
तो पल भर में बड़ा प्यारा सरस संसार जो जाये।
न कोई वैर लालच हो न हो माहौल दहशत का
सभी का एक दूजे पर सहज अधिकार हो जाये।।

जवां हर दुश्मनों पे अपने दस दस हो गया होता।
पलक जैसे झपकती शत्रु बेबस हो गया होता।
अगर होता जवानों में न इतना धैर्य औ साहस
तो फूलों के शहर का रंग नीरस हो गया होता।।

वतन के वास्ते सिर भी कटाना आ गया होता
सभी को याद ग़र गुज़रा जमाना आ गया होता।
न पत्थरबाज अपने सैनिकों को यूं सता पाते
अगर इस देश से रिश्ता निभाना आ गया होता।।