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मुक्तक-64 / रंजना वर्मा

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आज फिर ऋतु है' करवट बदलने लगी
बर्फ गिरने लगी वायु चलने लगी।
कम्बलों के तले कंपकंपाते बदन
शीत ऐसी बढ़ी रूह गलने लगी।।

उठो देश की इस दशा तो सुधारो
विपद में पड़े जो उन्हें तो उबारो।
जरा याद कर्तव्य अपना करो तुम
बनो इसके' माली ये' बगिया सँवारो।।

किया श्याम चितवन ने जब हमको घायल
हुए हम उसी की मुहब्बत के कायल।
पुकारा बहुत किन्तु वो ही न आया
विरह में बजी रात भर मेरी पायल।।

चली संध्या पहन चूनर हुआ नभ रंग रंगीला
उड़ी लो सुरमई चादर समंदर हो गया नीला।
प्रकृति मिस वृक्ष डाली के दिखाती है अजब मंजर
बड़ा अद्भुत चितेरा देख लो रब की जरा लीला।।

अगर गुण मिल भी जाये तो विनय से युत नहीं मिलता
कहीं मनुजत्व हो पर सत्य से संयुत नहीं मिलता।
सभी हैं चाहते वृद्धत्व में सेवा करे सन्तति
करें पर क्या सभी को तो श्रवण सा सुत नहीं मिलता।।