भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-65 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:06, 15 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=मुक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न दूरियां हों कभी दिल से सब के पास रहे
प्रयास कर न जहाँ में कोई उदास रहे।
मिटा सके तो भूख दे मिटा गरीब की' तू
न किसी आँख में आँसू न लब पे' प्यास रहे।।

घनश्याम चले आओ फिर लौट नही जाना
है प्रीति अनोखी यह इस से न मुकर जाना।
है चाह तुम्हारी तो हर एक दीवाने को
दामन न छुड़ा लेना रस्ता न बदल जाना।।

चला आ सांवरे मोहन कि तुझ बिन दिल नहीं लगता
जमाना खूबसूरत ये किसी काबिल नहीं लगता।
तुम्हारा नाम लेती हूँ तो होती है सुबह मेरी
तुम्हे जब याद करती हूँ समां बोझिल नहीं लगता।।

कन्हैया इश्क़ में फँस कर हुआ आधा यही सच है
दिवानी गोपियाँ उस की हुई राधा यही सच है।
सहज यदि श्याम मिल जाता वक़त उसकी कहाँ होती
इसी से हरिमिलनपथ में बड़ी बाधा यही सच है।।

माघ मास मन कल्पवास हित चल संगम के मेला में
माया मोह भरे आकर्षण खो मत जाना रेला में।
सोच नहीँ क्या व्यर्थ लुटाया और यहाँ है क्या पाया
गठरी खोल लुटा दे सरबस दानपुण्य की बेला में।।