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मुक्तक-66 / रंजना वर्मा

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तिश्नगी है मेरी सागर जैसी
प्रीति तेरी भरी गागर जैसी।
सिन्धु बाँधे नदी को बाहों में
रीति हो जाये उजागर जैसी।।

दर्द शायर ने जब सहा होगा
अश्क़ जब आंख से बहा होगा।
डूब कर अश्क़ के समन्दर में
शे'र भी ग़मज़दा रहा होगा।।

आप ने दिल कभी दिया होगा
कोई वादा भी तो किया होगा।
तोड़ कर दिल गया था जब कोई
जख़्म अश्कों से वह सिया होगा।।

जाम खुशियों के तोड़ मत देना
कोई उलझा सा मोड़ मत देना।
जिंदगानी की राह लम्बी है
तुम मेरा हाथ छोड़ मत देना।।

दिन पर दिन मुरझाती जाती काया में
पड़ी हुई है जाने कैसी माया में।
फटे हुए कपड़ों को है सीती रहती
गोरी यों बैठी छप्पर की छाया में।।