भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जय हो, हे संसार तुम्हारी / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:15, 16 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन }} जय हो, हे संसार, तुम्‍हारी! जहाँ झुक...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


जय हो, हे संसार, तुम्‍हारी!


जहाँ झुके हम वहाँ तनों तुम,

जहाँ मिटे हम वहाँ बनो तुम,

तुम जीतो उस ठौर जहाँ पर हमने बाज़ी हारी!

जय हो, हे संसार, तुम्‍हारी!


मानव का सच हो सपना सब,

हमें चाहिए और न कुछ अब,

याद रहे हमको बस इतना- मानव जाति हमारी!

जय हो, हे संसार, तुम्‍हारी!


अनायास निकली यह वाणी,

यह निश्‍चय होगी कल्‍याणी,

जग को शुभाषीष देने के हम दुखिया अधिकारी!

जय हो, हे संसार, तुम्‍हारी!