भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-72 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:12, 15 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=मुक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उजले सुथरे लोगों के दिल अंदर कितने काले हैं
अमर बेल से रिश्ते सारे खून चूसने वाले हैं।
किस पर करे भरोसा कोई किस कन्धे पर हाथ रखे
स्वार्थसुरा पी कर जब सारे लोग हुए मतवाले हैं।।

जब जब ख़ुशी के फूल है अश्कों में ढल गये
सींचे हुए सब खून के रिश्ते बदल गये।
दावा था जिन्हें साथ निभाने का उम्र भर
वादे गमों की आंच में सारे पिघल गये।।

हम अमावस में रौशनी तलाश करते हैं
राख के ढेर में चिनगी की आस करते हैं।
टोक देते हैं मगर तल्ख हवा के झोंके
फ़िज़ा खामोश, नज़ारे निराश करते हैं।।

मेघ काला घिरा है अभी
मुख घटा का चिरा है अभी।
बह रही धार में देखिये
एक पत्ता तिरा है अभी।।

मधुर कामना भी हृदय में जगी है
ये' बरसात करने लगी दिल्लगी है।
प्रतीक्षा करूँ साँवरा आ न पाया
झड़ी आज सावन की ऐसी लगी है।।