मुक्तक-98 / रंजना वर्मा
बड़ी मुश्किल से दिल जुड़कर अचानक टूट जाते हैं 
युगों से   साथ  थे  जो   एक  दिन  वो  छूट  जाते हैं।
विधाता  की  बनी   दुनियाँ  में कुछ  होता  न स्थायी
सभी  जीवन   बने   जो   बुलबुले  से   फूट  जाते हैं।।
सुबह सुबह इक गुलाब प्यारा उठा के तकिया पे रख लिया है।
भरा  हुआ  है दिलों में  पीतल या  शुद्ध सोना  परख  लिया है।
जरा  तो  नजरें  उठा  के  देखो  यहाँ  मुहब्बत  की वादियाँ हैं
यहाँ  हवाओं  ने  प्रेम  पीयूष के  घूँट  का  स्वाद चख लिया है।।
सो रहा है देश  अब  इस  को  उठाना चाहिये
भूल अपना दर्द  दुख सब का मिटाना चाहिये।
है प्रकृति दिन रात पर उपकार में संलग्न जब
आदमी  हैं  आदमी  के   काम  आना  चाहिये।।
लूटते जो देश को  उन का  अनादर  कीजिये
ओढ़तीं बहनें कफ़न इसको उजागर कीजिये।
बच्चियों की  अस्मिता  से खेलते  जो नीच हैं
राक्षसी  है  वृत्ति  जो  पूरा  निरादर   कीजिये।।
देश  का  सम्मान  मिट्टी  में  मिलाना चाहते
लोग हैं कुछ शीश अपनों के झुकाना चाहते।
दे रहे नित गालियाँ  अपमान भारत का करें
काटिये  वो  हाथ  जो  झंडा  जलाना चाहते।
 
	
	

