नया युग / महेन्द्र भटनागर
ओ ! मनुजता की
करुण, निस्पंद बुझती ज्योति
मेरे स्नेह से भर
प्रज्ज्वलित हो जा !
निविड़-तम-आवरण सब
विश्व-व्यापी जागरण में
आ सहज खो जा !
हिमालय-सी
भुजाओं में भरी है शक्ति
जन-जन रोक देंगे आँधियों को,
फेंक देंगे दूर
बढ़ती ज्वार की लहरें !
नयी विकसित
युगों की साधना की फूटती आभा,
नयी पुलकित
युगों की चेतना की जागती आशा !
दलित, नत, भग्न ढूहों से
उठी है आज
नव-निर्माण की दृढ़ प्रेरणा !
धु्र्र्र्र्रव सत्य
होगी कल्पना साकार !
अभिनव वेग से
संसार का कण-कण
नया जीवन, नया यौवन, लहू नूतन,
सुदृढ़तम शक्ति का
संचार पाएगा !
नया युग यह
प्रखर दिनकर सरीखा ही नहीं,
पर, है पहुँच आगे बड़ी इसकी
घने फैले हुए जंगल
भयानक मत्त 'एवर-ग्रीन',
भूतल ठोस के नीचे,
अतल जल के
जहाँ बस है नहीं रवि का
वहाँ तक है
नये युग के विचारों का
अथक संग्राम !
कैसे बच सकोगे
ओ पलायन के पुजारी !
आज अपनी बुद्धि की हर गाँठ को
लो खोल,
बढ़कर आँक लो
नूतन सजग युग का समझकर मोल !
1950