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मुक्तक-51 / रंजना वर्मा

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मैं नहीं जानती है कितना सुख दुख पाया
मैने शायद जीवन को अब तक भरमाया।
बीते पल क्षण में आती जाती सांसों में
केवल पग ध्वनि ही सुनी न पग आगे आया।।

खड़ा हो खेत मे जो नित्य आतप वात सहता है
कभी ओले बरसते हैं कभी बरसात सहता है।
जगत की भूख हरने को करे सर्वस्व जो अर्पण
कृषक जब कर्ज लेता प्राण के अपघात सहता है।।

संसार साँवरे से नित माँगता सहारा
जब डूबती है' कश्ती तब ढूँढता किनारा।
मैं हाथ जोड़ तुझसे विनती यही सुनाऊँ
मुझको उबार वैसे बहुतों को' ज्यों उबारा।।

सब कहते हैं मैंने जग पर उपकार किया
अपना सारा जीवन जन के हित वार दिया।
पर निज अंतर्मन का मंथन कर यह जाना
मैने जीवन भर सिर्फ स्वयं से प्यार किया।।

खड़ा हो सामने वैरी अगर मनुहार क्या करना
हमेशा दे दग़ा उस शत्रु से व्यवहार क्या करना।
अगर वह मान जाये तो हटा देना उसे रण से
न माने मार देना व्यर्थ की तकरार क्या करना।।