भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कचनार / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:30, 16 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह= }} पहली बार मेरे द्वार रह-रह ग...)
पहली बार
मेरे द्वार
रह-रह
गह-गह
कुछ ऐसा फूला कचनार
गदराई हर डार!
इतना लहका
इतना दहका
अन्तर की गहराई तक
पैठ गया कचनार!
जामुन रंग नहाया
मेरे गैरिक मन पर छाया
छ्ज्जों और मुँडेरों पर
जम कर बैठ गया कचनार!
पहली बार
मेरे द्वार
कुछ ऐसा झूमा कचनार
रोम-रोम से जैसे उमड़ा प्यार!
अनगिन इच्छाओं का संसार!
पहली बार
ऐसा अद्भुत उपहार!