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खुल रहे ग्रहों के दरवाज़े / विहाग वैभव
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मैंने जिस मेज़ पर रखा अपना स्पर्श
उसी से आने लगी दो खरगोशों के सिसकने की आवाज़
हाथ से होकर शिराओं में दौड़ने लगी गिलहरियाँ
मैंने जिस भी कमरे में किया प्रवेश
उसी से आई
कामगार पिताओं वाले बच्चों की जर्जर खिलखिलाहट
जिस हवा को पिया मैंने अभी कभी
उसी में आती रही मुझे पूर्वजों की पसिनाई गन्ध
होंठ के रंग को करते हुए कत्थई से लाल
जिस भी चुम्बन को जिया मैंने
उसी में बिलखती रही भगत सिंह की प्रेमिका
जिस भी फूल को चुना मैंने
तुम्हारे गर्वीले जूड़े में टाँकने के लिए
वही पकड़कर हाथ मेरा पहुँच गए मुर्दाघर
मैंने जिस भी शब्द को चुना
किसी से लड़ने के लिए
वही जुड़े हाथ कहने लगे मुझसे
क्षमा ! क्षमा ! क्षमा !