भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
परबत जेड़ी पीर / मानसिंह राठौड़
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:27, 25 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मानसिंह राठौड़ |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
वैण विचारै बोलणा,घाव करै गंभीर ।
अंतर मन ऊपजै,परबत जेड़ी पीर ।।
हरदम मन अधीर हुवै,नैणां बरसे नीर ।
खुरच खुरच आ खायगी,परबत जेड़ी पीर ।।
कुबद कमाई कौरवे,खींच द्रोपदी चीर ।
पांडवां मन पनप रही,परबत जेड़ी पीर ।
सुणयो अणसुणयो करूं,(पण)तड़फ़ावै तहरीर ।
नैण जगावैह नुगरा, परबत जेड़ी पीर ।
सिरजण कर'ल्यां साँवठों,तराश ल्यां तकदीर ।
सबद कटार चलाय नैं,मारां मन री पीर ।।
अंतस राखो ऊजळो,तरकस ज्ञान तुणीर ।
मात भवानी मेटसी,परबत जेड़ी पीर ।
सजण मिनखां रो सँगड़ो,साँच नाम शमसीर ।
मेटण वाळो मेटसी,परबत जेड़ी पीर ।।