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गली महानगर की / कुमार मुकुल

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सुबह या शाम

नहीं होती यहाँ

दोपहर होती है

वह भी इतनी सी

जैसे-किसी मजदूर की चेट में

भर दिन की मशक्कत के बाद

आया हुआ नोट हो

जिसके पूँछ हो सवालों की


कि कहाँ

रखी जाए

खाई जाए कैसे

कि कितनी बचाई जाए


आपके हिसाब से

कैसी होनी चाहिए सुबह

ऐसी ही न कि रोशनदान से जब

धूप के कतरे झाँकने लगें

तो मेमसाहब को

बाँहों में भरते कहें आप

कि यार उठो भी

सूरज

सिर पर आ गया।