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प्रेम अँजुरी / कविता भट्ट

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नित वन्दन
मैं करती रही हूँ
तेरा ही प्रिय
मंदिर की पूजा -सा
मेरा प्रेम है
दीपशिखा -सी जली
किया प्रकाश
तेरे घर- आँगन,
रही पालती
मन में यह भ्रम
मंदिर- सा ही
(कभी न कभी तुम )7
मेरे देवता
प्रसाद में दोगे ही
प्रेम-अँजुरी
किन्तु यह क्या (मिला !)7
तुम सदैव
सशंकित, क्रुद्ध ही
और रहते
उद्धत उपेक्षा को
नहीं जानती
तप जिससे होओ
तुम प्रसन्न
जबकि मैं तो प्रिय
हूँ प्रेम-तपस्विनी!