Last modified on 17 जुलाई 2008, at 20:49

अभिप्रेत-वंचित / महेन्द्र भटनागर

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:49, 17 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह=अनुभूत क्षण / महेन्द्र भटनागर...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब

वांछित / काम्य / अभीप्सित
नहीं मिला,
जीने का क्या अर्थ रहा ?

कोसों फैले
लह-लह लहराते उपवन में
जब
हृदय-समायी : मन भायी
गंध-भरा
पुलकित पाटल नहीं खिला ;
जीवन-भर का तप व्यर्थ रहा !
जीने का क्या अर्थ रहा !

जब अन्तर-तम में
हर क्षण, हर पल
केवल मर्मान्तक त्रास सहा !

माना
बहुमूल्य अनेकों उपहार मिले
हीरों के हार मिले,
अनगिनत सफलताओं पर
असंख्य कंठों से
नभ-भेदी जय-जयकार मिले,
सर्वोच्च शिखर सम्मान मिले,
पग-पग पर वरदान मिले !

किन्तु;
नहीं पाया मन-चाहा
लगता है :
दुर्लभ जीवन निष्कर्म गया,
जैसे भंग हुई
लगभग साधित-कठिन तपस्या !

दहका दाह अभावों का,
हर सपना भस्म हुआ !
निर्धन, निष्फल, भिक्षु अकिंचन
जैसे नहीं किसी की लगी दुआ !