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विराम - पूर्व : 2 / महेन्द्र भटनागर

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स्मृतियाँशूल हैं !

धँसते नुकीले शूल हैं !

स्मृतियाँ
जागती हैं जब
लगता है कि मानों उड़ रही है धूल चारों ओर,
जीवन दहकता
कष्टकर नरकाग्नि में,
जीवन लड़खड़ाता चीखता
सुनसान में,
भर हत हृदय में हूल !
आदमी
ऐसे क्षणों में टूट गिरता
तिमिरमय घन गुहा में
हिल उखड़ आमूल !
दीखता सर्वत्र
प्रतिकूल-ही-प्रतिकूल,
भेदते अन्त:करण को
तीव्र चुभते शूल !
अनइच्छित
दुखद अनुभूतियों कें शूल ।