भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बैमीला रिस्ता / लक्ष्मीनारायण रंगा

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:05, 24 जुलाई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लक्ष्मीनारायण रंगा |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लाग जावै
जणै
ऊंजळ दांतां में
कोई काळो कीड़ो-
तो
मसूड़ा मांय गैराई सूं गडियोड़ा
दांत भी
हिल जावै
जड़ण सूं

होळै होळै
दाड़ां-दान्त
सड़न लागै
झरण लागै,
बिगड़ जावै मूंढै रो स्वाद
समाजावै सांसां में बास
पण
मोह आन्धो मन,
इण सड़ियोड़ा दांतां नैं
आप रै हाथां
उखाड़ फैंकण रो,
निकलवावणै रो
करै नहीं सा‘स-र
जड़ां छोडियोड़ा दांत
सूतां-जागतां
खावतां-पीवतां
हंसता-बोलता
दै‘ता रै
एक तीखो दरद
एक गैरी टीस-कै
आदमी छटपटावतो रै