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सुण म्हारा इस्ट! (पांच) / राजेन्द्र जोशी
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म्हारा इस्ट, सुण!
म्हनै घणो अचरज हुवै
जद थनै सोधण सारू
भटकता फिरै गळी-गळी
बाखळ रै बिचाळै
समदर रै ऊंडै
सीप्यांं-संखां नै भेळा लेय'र
मछलियां रै लारै।
बांरो मन उळझतो-उळझतो
आभै कानी देखण लागै
डीगा-डीगा भाखरां कानी
बैवती अलकनंदा रोकै
थारो वास पूछण सारू
बा उछळती-नाचती अर
हंसती पाछी बैवण लागै।
कठैई अंधारै मांय
उजाळो करै धोरां बिचाळै
नीं सोधै आपू-आप मांय
जठै लुक्योड़ो बैठो है थूं
उणरो इस्ट...।