इतिहास का एक पृष्ठ / महेन्द्र भटनागर
सच है —
घिर गये हैं हम
चारों ओर से
हर क़दम पर
नर-भक्षियों के चक्रव्यूहों में,
भौंचक-से खड़े हैं
लाशों-हड्डियों के
ढूहों में !
सच है —
फँस गये हैं हम
चारों ओर से
हर क़दम पर
नर-भक्षियों के दूर तक
फैलाए-बिछाए जाल में,
छल-छद्म की
उनकी घिनौनी चाल में !
बारूदी सुरंगों से जकड़ कर
कर दिया निष्क्रिय
हमारे लौह-पैरों को
हमारी शक्तिशाली दृढ़ भुजाओं को !
भर दिया घातक विषैली गंध से
दुर्गन्ध से
चारों दिशाओं की हवाओं को !
सच है -
उनके क्रूर पंजों ने
है दबा रखा गला,
भींच डाले हैं
हर अन्याय को करते उजागर
दहकते रक्तिम अधर !
मस्तिष्क की नस-नस
विवश है फूट पड़ने को,
ठिठक कर रह गये हैं हम !
खंडित पराक्रम
अस्तित्व / सत्ता का अहम् !
सच है कि
आक्रामक-प्रहारक सबल हाथों की
जैसे छीन ली क्षमता त्वरा —
अब न हम ललकार पाते हैं
न चीख पाते हैं,
स्वर अवरुद्ध
मानवता-विजय-विश्वास का,
सूर्यास्त जैसे
गति-प्रगति की आस का !
अब न मेधा में हमारी
क्रांतिकारी धारणाओं-भावनाओं की
कड़कती तीव्र विद्युत कौंधती है,
चेतना जैसे
हो गयी है सुन्न जड़वत् !
चेष्टाहीन हैं / मजबूर हैं,
हैरान हैं,
भारी थकन से चूर हैं !
लेकिन
नहीं अब और
स्थिर रह सकेगा
आदमी का आदमी के प्रति
हिंसा-क्रूरता का दौर !
दृढ़ संकल्प करते हैं
कठिन संघर्ष करने के लिए,
इस स्थिति से उबरने के लिए !