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निरन्तरता / महेन्द्र भटनागर
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हो विरत ...
एकान्त में,
जब शान्त मन से
भुक्त जीवन का
सहज करने विचारण _
झाँकता हूँ
आत्मगत
अपने विलुप्त अतीत में _
चित्रावली धुँधली
उभरती है विशृंखल ... भंग-क्रम
संगत-असंगत
तारतम्य-विहीन!
औचक फिर
स्वत: मुड़
लौट आता हूँ
उपस्थित काल में!
जीवन जगत जंजाल में!