भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहे-2 / दरवेश भारती

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:28, 7 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दरवेश भारती |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

द्वापर-पालक क्या गये, जन-जन हुआ अधीर।
द्रौपदियों का आजकल, कौन बढ़ाये चीर।।

अबके शासन-तन्त्र में, ख़ूब बढ़ा उत्कोच।
भ्रष्टाचार अवाम की, गर्दन रहा दबोच।।

राजनीति से नीति यों, लुप्त हुई है मीत।
बिना वसा के दूध से, ज्यों ग़ायब नवनीत।।

आज सियासतदान यों, पल-पल बदले रंग।
ज्यों गणिका इक संग अब, अभी दूसरे संग।।

मनसा, वाचा, कर्मणा, एक न जिसका कर्म।
उसे राजनेता समझ, यही नीति का मर्म।।

लोकतन्त्र ने धर लिया, राजतन्त्र का रूप।
चुने गये नेता मगर, राज करें बन भूप।।

पुण्य कहे जो पाप को, अवनति को उत्थान।
उबर सका संसार में, कब ऐसा इन्सान।।

करें कपट, छल, वंचना, बदलें नाना वेश।
सतत अवतरित हो रहे, घर-घर में लंकेश।।

होनहार होकर रहे, कीजै लाख प्रयास।
अवध कहाँ था चाहता, राम करें वनवास।।

व्यर्थ गया उपदेश सब, व्यर्थ गया सब ज्ञान।
मैं-मैं का जब उम्र-भर, तज न सके अभिमान।।

नौ सौ लाख करोड़ में, होते कितने अंक।
यह जाने धनराज ही, क्या बतलाये रंक।।