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जनाब वामिक जौनपुरी / हुस्ने-नज़र / रतन पंडोरवी

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आप का मजमूआ-ए-कलाम "फर्शे-नज़र" ज़ेबे-नज़र हुआ। मैं ने शुरू से आखिर तक आप के कलाम को बड़ी दिलचस्पी से पढ़ा और बेहद लुत्फ़ अंदोज़ हुआ और पंजाब क़दीम की उस तालीमी रिवायत के अब नापैद हो जाने पर आंसू बहाये जिस का भरपूर अक्स आप के कलाम में मिलता है। यानी मकतबों में अरबी, फारसी और उर्दू शायरी की बुनियादी तालीम के गहरे निशानात। उर्दू शायरी का ये क्लासिकी अंदाज़ जो आप के कलाम में नज़र आता है बग़ैर किसी उस्ताद के आगे ज़ानुए-अदब तय किये हुए हासिल नहीं हो सकता। गो ख़ुद मैं इस किस्म की इब्तिदाई तालीम से बड़ी हद तक महरूम रहा, ताहम इस को मैं बड़ी क़द्र की निगाह से देखता हूँ। हैफ़ कि पंजाब मरहूम का ये विरसा हमेशा हमेशा के लिए ज़ीनते-ताके-निसियां हो कर रह जायेगा और एक सदी बाद किसी तालिब-इल्म के इस इंकिशाफ पर उस को पी.एच. डी की डिग्री मिलेगी कि हिंदुस्तान में आज़ादी के बाद उर्दू का सिकाफ्ती क़त्ले-आम किस तरह हुआ था।