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हज़रत नासिर करनूली / हुस्ने-नज़र / रतन पंडोरवी
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हुसूले-इल्म के लिए जो तगो-दौ पंडित जी ने की है आज कल ये बिल्कुल उनका है। एक किताब को हासिल करने के लिए पा-पियादा पचास पचास मील का सफ़र तय करना "शीरीं" तक रसाई हासिल करने से कम नहीं।
पंडित जी के कलाम में लखनऊ का क़दीम रंग झलकता दिखाई देता है, पंजाबी होते हुए भी वो ज़बान पर उबूरे-ताम रखते हैं। मुहावरों की बंदिश और तर्ज़े-अदा में भी इम्तियाज़ी खुसूसियत के हामिल हैं। मज़ामीन में शोख़ी भी है और ताज़गी भी। कलाम में बरज़स्तगी है और रवानी भी।