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बाज़ार में इंसान को बिकते देखा / रतन पंडोरवी

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बाज़ार में इंसान को बिकते देखा
अख़लाक़ को ईमान को बिकते देखा
दुनिया की ये बेबाक़ निगाही तौबा
हर बात पे भगवान को बिकते देखा।

कमज़ोर को या रब न सताया होता
शहज़ोर की ताक़त को दबाया होता
तफ़रीक़ जो मंज़ूर थी इंसानों में
इंसान को इंसान बनाया होता।

हंसता है कोई और कोई रोता है
ये खेल अजब शाम-ओ-सहर होता है
बे सूद है इंसान का हंसना रोना
पाता है समर वो जो कोई बात है।

भाई हैं ज़माने में जनम के साथी
अहबाब भी हैं शादी-ओ-ग़म के साथी
देगा न कोई साथ बवक़्ते-आख़िर
आमाल ही हैं राहे-अदम के साथी।