भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये शब ये ख़यालो-ख़्वाब तेरे / नासिर काज़मी

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:31, 18 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नासिर काज़मी |अनुवादक= |संग्रह=बर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ये शब ये ख़यालो-ख़्वाब तेरे
क्या फूल खिले हैं मुंह अंधेरे

शोले में है एक रंग तेरा
बाक़ी हैं तमाम रंग मेरे

आंखों में छुपाये फिर रहा हूँ
यादों के बुझे हुए सवेरे

देते हैं सुराग़ फ़सले-गुल का
शाख़ों पर जले हुए बसेरे

मंज़िल न मिली तो काफ़िलों ने
रस्ते में जमा लिए हैं डेरे

जंगल में हुई है शाम हमको
बस्ती से चले थे मुंह अंधेरे

रूदादे-सफ़र न छेड़ 'नासिर'
फिर अश्क़ न थम सकेंगे मेरे।