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दे के सुनहरी सुब्ह ये अरमां न कर सके / ईश्वरदत्त अंजुम

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दे के सुनहरी सुब्ह ये अरमां न कर सके
हम अपनी ज़िन्दगी को दरख्शां न कर सके

तन्हाइयों में दर्द का एहसास तो हुआ
लेकिन ग़मे-हयात का दरमां न कर सके

हर ज़ुल्म हम ने सह लिया चुप चाप जान पर
खुशियों को दिल में हम कभी मेहमां न कर सके

वो गुल ही क्या जो रंग बिखेरे न हर तरफ
मुहसिन ही क्या जो कोई एहसाँ न कर सके

रास आ गये हैं हमको अंधेरे कुछ इस क़दर
हम वक़्ते-शमअ फरोजां न कर सके

अंजुम थे वक़्फ़ हम तो बियाबान के लिए
गुलशन की सैर का कभी अरमां न कर सके।