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द्वार पर हम उनके जाएंगे ज़रूर / शोभा कुक्कल
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द्वार पर हम उनके जाएंगे ज़रूर
अपनी हिम्मत आजमाएंगे ज़रूर
जब भी आएंगे खुशी के चार पल
साथ अपने ग़म भी लाएंगे ज़रूर
घर के दरवाजों को रखियेगा खुला
वो किसी जानिब से आएंगे ज़रूर
नफ़रतों की आँधियों में चंद लोग
अम्न का दीपक जलाएंगे ज़रूर
अहले-इल्मो-फ़न मिलेंगे जब कभी
हम अदब से सर झुकायेंगे ज़रूर
रंजो-ग़म से जो तड़पते हैं उन्हें
ग़म से हम राहत दिलाएंगे ज़रूर
जब सजेगी महफ़िले-शेर-ओ-अदब
रंग हम अपना जमाएंगे ज़रूर
उस गली की रास है जिनको हवा
उस गली की ख़ाक उड़ाएंगे ज़रूर।