मुक्ति-बोध (2) / महेन्द्र भटनागर
बेफ़िक्री से सोऊँगा,
बेफ़िक्री से टहलूँगा
‘जनक-ताल’ तक टहलूँगा,
अब नहीं होगी हड़बड़ी
तोड़ दी है हथकड़ी
हर कड़ी !
घंटों नहाऊँगा,
सुरे-बेसुरे
नाना गीत गा-गा कर
नहाऊँगा !
कहाँ हैं
मेरे
‘पाकीज़ा’ और गीतादत्त के रिकार्ड ?
रात के सन्नाटे में
बार-बार बजाऊँगा !
जब-तब गुनगुनाऊँगा !
ओ मेरे उपवन के पौधो !
तुम्हें अब कोई शिकायत नहीं होगी,
जी-भर देखूंगा
सींचूँगा
बाँहों में बाँधूँगा !
ओ कनेर, कचनार, अमरूद !
अब उदास मत रहो
ओ रजनीगंधा ! ओ बेला !
अब हताश मत रहो,
तुम्हारी गंध
रोम-रोम से अनुभूत होगी,
हर साँस जैसे
प्रसून-प्रसूत होगी !
अनजान में भी
अब नहीं रौंदूँगा
ओ मेरे उपवन की
सब्ज़ घास !
रहूंगा पास,
मख़मली तन पर लोटूंगा
आदिम कामना से भर,
सुकोमल हाथ फेरूंगा
ओ स्निग्ध रचना !
हो
प्रफुल्ल-वदना !
हर क्षण अपना है,
सच सपना है !