एक स्त्री
फींचती है घर भर के कपड़े
किसिम-किसिम के रंग-बिरंगे कपड़े
रंगों के बारे में वैधानिक चेतावनी को अनसुना कर
धूप में पसार देती है उन्हें
सूखने
सूर्य
उसके कपड़े सुखाने के बहाने
चुरा लेता है उसके कपड़ों से थोड़ा-थोड़ा रंग हर रोज़
रोज़-रोज़ बदरंग होते जाते हैं उसके कपड़े
परेशान स्त्री खोए हुए रंग ढूँढ़ती है
खोए हुए रंग ढूँढ़ती हुई वह इन्द्रधनुष के बारे में नहीं सोचती
है कभी।