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ज़मीन अपनी अपनी / मालिनी गौतम

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सूर्य के प्रखर ताप से झुलसे हुए
अपनी हरीतिमा खोने की वेदना से भरे-भरे
धूल-धूसरित
सड़क के दोनों किनारे
दो-तीन बारिश में ही
ओढ़ लेते हैं
रेशमी हरी चादर।

नरम-नरम घास, फुहाड़ियाँ
बैंजनी फूल और बारीक पत्तों वाली लतरें
पीले गूदेदार फल वाली जंगली कँटीली झाड़ियाँ
जड़ों में लाल दन्तमंजन की
ख़ुशबू वाली पतली घास
(जिसे बचपन में उखाड़कर सूँघते थे)
और भी न जाने क्या-क्या
उग आते हैं इस तरह, अचानक ही रातों-रात
जैसे कभी मरे ही नहीं थे
सदैव से वहीं थे
अपनी ही ज़मीन पर अवस्थित ।

इस तरह अवस्थित होने के लिए
जरूरी है ज़मीन का "अपना" होना
उधार की ज़मीन पर
अधिक देर नहीं टिका जा सकता
पैर उखड़ने में वक़्त नहीं लगता
अपनी ज़मीन ही पहचानती है
अपने गर्भ में निहित
हर बीज की चाहत, फ़ितरत और ज़रूरत
तभी तो सही समय पर
उस तक पहुँचाती है
अपनी सौंधी महक से सने हुए
पानी की सही मात्रा
और खाद का सही अनुपात
वही करती है जतन
अपने गर्भ में भी उसे बचाए रखने का ।

मिलते ही अनुकूल मौसम
फिर खिलखिलाती है
अपने गर्भ से निकले हुए शिशुओं को
हरे-पीले, बैंजनी-नीले और लाल लिबासों में
अपनी छाती पर गलबहियाँ करते देख
मर कर भी इस तरह
बार-बार जीने के लिए
ज़रूरी है
परिवेश और संस्कारों से उर्वर हुई
ज़मीन के गर्भ में
स्वयं को सुरक्षित रखना
वरना उधार की चमचमाती ज़मीन पर
बड़े-बड़े पेड़ों को
धराशाई होने के बाद
मौसम बदलने पर भी
फिर कभी उठते नहीं देखा ....