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प्रेम — चार और कविताएँ / मालिनी गौतम

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1

प्रेम ..
अम्मा के जंग लगे
सन्दूक में
सबसे नीचे
सहेज कर रखी गई
लाल साड़ी-सा
जिसे खोलते ही
सौ-सौ सूरज
एक साथ चमकने लगते हैं
उसके चेहरे पर ..

2

प्रेम ...
रोपता है पौध
विश्वास की
वक़्त की क्यारियों में
इस बात से बेख़बर
कि अतीत के
जंग लगे हँसिए भी
बहुत धारदार होते हैं ..

3

प्रेम...
अलगनी पर
सूखते कपड़ों-सा
नितरता रहा
कभी धूप
कभी छाँव में ..

4

प्रेम..
ज़मी के साथ-साथ
गोल-गोल घूमता रहा
सदियों से सदियों तक
किसी आख़िरी
स्टेशन की तलाश में ..