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परम्परा / भी० न० वणकर / मालिनी गौतम
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इसी रास्ते पर?
हाँ, इसी रास्ते पर
यहाँ-वहाँ, हर जगह
बिखरे हुए हैं
हमारे सपनों के भग्न अवशेष,
मंत्रोच्चार करता हुआ
धड़ विहीन मस्तक,
खून से लथपथ कर्मठ अँगूठा,
धीर-वीर, महाप्राण पुरुषों के
कवच-कुण्डल, बाण, रथ....
और गूँजती है चारो दिशाओं में
हमारे पूर्वजों की ज़मीन में दबी हुई
बलि दी गई खोपड़ियों की
तड़पती चीख़ें,
इसीलिए तो आज हम
वैताल बन कर
उनके द्वारा सहन किए गए
अत्याचारों के इतिहास की
भयानक ऋचाएँ जप रहे हैं
और पहाड़ बन कर खड़े हैं,
परम्पराओं के प्रलय के लिए
आज हम कालभैरव भूकम्प बन कर
डमरू बजा रहे हैं!
इसी रास्ते पर?
हाँ, इसी रास्ते पर !
अनुवाद : मालिनी गौतम