भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्षतशीश मगर नतशीश नहीं / हरिवंशराय बच्चन
Kavita Kosh से
Tusharmj (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 00:37, 25 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन }} क्षतशीश मगर नतशीश नहीं! बनकर अदृश्...)
क्षतशीश मगर नतशीश नहीं!
बनकर अदृश्य मेरा दुश्मन,
करता है मुझपर वार सघन,
लड़ लेने की मेरी हवसें मेरे उर के ही बीच रहीं!
क्षतशीश मगर नतशीश नहीं!
मिट्टी हे अश्रु बहाती है,
मेरी सत्ता तो गाती है;
अपनी? ना-ना, उसकी पीड़ा की ही मैंने कुछ बात कही!
क्षतशीश मगर नतशीश नहीं!
चोटों से घबराऊँगा कब,
दुनिया ने भी जाना है जब,
निज हाथ-हाौड़े से मैंने निज वक्षस्थल पर चोट सही!
क्षतशीश मगर नतशीश नहीं!