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बहुत दिनों में धूप / अनिल जनविजय

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बहुत दिनों में धूप निकली
दिन आज का भरा-भरा है
पत्ते झर चुके पेड़ों के
पर मेरा मन हरा-हरा है
दसों दिशाएँ भरी हुई हैं सौरभ से
मौसम त्रिलोचन का ’नगई महरा’ है
यह शरद की धूप कितनी कमनीय है
चारों ओर जैसे स्वर्ण ही स्वर्ण फहरा है