भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत दिनों में धूप / अनिल जनविजय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:55, 5 सितम्बर 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत दिनों में धूप निकली
दिन आज का भरा-भरा है
पत्ते झर चुके पेड़ों के
पर मेरा मन हरा-हरा है
दसों दिशाएँ भरी हुई हैं सौरभ से
मौसम त्रिलोचन का ’नगई महरा’ है
यह शरद की धूप कितनी कमनीय है
चारों ओर जैसे स्वर्ण ही स्वर्ण फहरा है

(मस्क्वा, 2018)