बाबू जी! / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी
बाबू जी!
आपके कन्धे पे चढ़कर
मुझे देखना था संसार
आपके हाथों को तकिया बनाकर
सुनना था
जादूई कोई बक्सा खुलने जैसी कहानी
और आपके ही सीने में मस्ती से सोकर
देखने थे इन्द्रधनुषी सपनें
नाली ही नाली
वह सँकरा मेड़ के रास्ते में
मुझे चलना था आपके साथ
क़दम क़दम नापते
और पहुँचना था खेत में
जोत रहे खेत में
पीछे-पीछे आकर क्यों चर रहे होंगे
बगुलों के झुंड ?
पूछना था आपसे ही
आपका बनाया हुआ खरही के ऊपर चढ़कर
सुनाना था मेरे दोस्तों को
वृक्षों को, चिडि़यों को
दूर-दूर खड़े घर के छतों को
और उससे भी दूर खड़े पहाड़ों को
‘....देखो, कितनी ऊॅंची हो गई हूँ मैं!’
कितने सारे थे मेरे प्रश्न
कौन बनाता होगा खिलने लायक
पौधे के अन्दर घुसकर फूलों को?
कौन चलाता होगा
चारों दिशा में बैठकर
पंखा जैसी हवा?
ओह!
कौन बरसाता होगा
आसमान से इस तरह पानी!
कैसे बना होगा जल?
साफ़ कर पाता है कि नहीं यह
मैल जैसा कचड़ा बनकर बैठा हुआ दुःख?
लेकिन बाबू जी!
क्यों वैसा नहीं होता
जैसे हम सोचते हैं
जैसी कल्पना करते हैं?
कम्पित हो रही है मेरी नन्ही सी जिगर
काँप रही हैं मेरी आँखें
जैसे जलकर ख़त्म हो जाती है बाती
और पिघलकर ख़त्म हो जाती है मोमबत्ती
मेरे भीतर ख़त्म हो गये हैं और सारे सवाल
लेकिन
पूछना है एक प्रश्न
उसके नीचे दबी हुई है
मेरी आत्मा
जैसे दबा रहा हो किसी भारी पत्थर ने
एक नन्हे-से फूल को
दबोचकर दोनों हाथों से मेरी छोटी-सी नाड़ियाँ
ऐंठकर बलिष्ठ पैरौं से मेरी कोमल जान को
जैसे कोई बाज
चिथड़ा–चिथड़ा बनाकर शिकार तोड़ रहा हों
जैसे कोर्इ दन्त्य कथा का अजंग दैत्य हों
वह अन्धकार की कुरूप छाया
क्यों आपके चेहरे से हुबहु मेल खाती है?