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पुतला / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी
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आँखें निकालकर
रख देती हूँ डॉअर में
निकालती हूँ मस्तिष्क
और रखती हूँ मेज के ऊपर
अलग करती हूँ सीने से
दुनिया को प्यार करने वाला हृदय
गन्ध, स्वाद, स्पर्श और अनुभूति के
रख देती हूँ एक कोने में सभी इन्द्रियाँ
अलग-अलग करती हूँ
नाड़ी और हथेली
टाँगें और तलवे
नहीं रहेगा बाक़ी
तर्क, विचार और सामान्य विवेक
खोकर सारा निजत्व
रहती हूँ शेष
कंकाल के फ्रेम में चलायमान पुतला
और मिल जाती हूँ भीड़ में
और इस तरह
मैं हुंगी तुम्हारी मनपसन्द
लेकिन माफ़ करना
केवल तुम्हारी मनपसन्दी के लिए
मंजूर नहीं है मुझे
पुतला बनना।