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युद्ध का सौन्दर्य / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

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शान्ति
पटवारी चाचा के बग़ीचे में फलने वाले आम नहीं थे
जो शाखा–शाखा लचकाकर
फले हुए हों लदा-फँदा
फरिया फरफराते हुए पहुँचने के बाद उनके आँगन में
फरिया के फेर भर–भर के
खाया जाये पेट भर
और हो जाये तृप्त

थपिनी दीदी<ref>थापा समुदाय कि महिला के लिए सम्बोधन। </ref>ने बेचने के लिए रखी हुई आलूदम<ref>आलू से बनने वाला एक पकवान।
</ref>नहीं थी ‘शान्ति’
मोतिया कलवार की घुमटी में मिलने वाली ललीलप नहीं थी ‘शान्ति’
‘शान्ति’-
किसी खेल का नाम नहीं था
मेरे घर की किसी चीज़ का नाम भी नहीं था
स्कूल, खेत या गाय चराने जाते हुए
बस मेरी समझ की एक ही चीज़ का नाम था ‘शान्ति’

बाल बिखेरती हुई
दुर्लभ ही हँसती और बिना आकर्षण वाली
एक सहेली थी
जो पल–पल में बदलती रहती थी स्वभाव
और करती रहती थी मुझे इमोशनल ब्लैकमैल
मुझसे छोटी अँगुल जोड़कर लगाती थी कट्टी
और तर्जनी जोड़कर खुलाती थी
हाँ, उसी का नाम था शान्ति

अभी जिस शान्ति की बात करते हैं हम
वह तो मैंने बहुत सालों के बाद
किताबों में पढ़ी है

अच्छे से नहीं आरही है याद कि कहाँ थी
लेकिन
थी मेरे गाँव में
कहीं न कहीं ‘शान्ति’
कारण
थे लोग बिल्कुल मौन और सामान्य

गंगाराम थनेत उर्फ गंगवा थारु से
एक-एक बोत्तल दारु में
एक-एक बिगाहा ज़मीन सटही करने वाले
धूर्त महाजन की मुस्कान में थी ‘शान्ति’

जैसे कोई बाज पकड़ कर ले जाता है
आँगन में चर रहे कबूतर को
गायब होते थे जब
झोपड़ी में खिल रहे
इन्द्रकमल<ref>एक प्रकार का फूल।</ref> के फूल अचानक
और लौटते थे वे ख़ून से भरे जाँघ लेकर
काँप रहे उनके होंठों में भी थी ‘शान्ति’

खोखला हो रहा ग़रीब का पेट
भरती जा रही सेठजी की तिजोरी
ऊँचा होता जा रहा क़र्ज़ का सगरमाथा<ref>माउंट एवरेस्ट</ref>
उसी में दबकर
धीरे–धीरे मर रहा निरिह आदमी
और उसके मूँह से निकल रहा लाचार गाज
मेरे गाँव के अघोषित शान्ति के
और दृष्टान्त थे

बेदख़ल चलता था गाँव में शान्ति
खँड़ाई<ref>नेपाल के तराई क्षेत्र में विशेषत: गावों में घर कि दिवारें बनाने के लिए और आँगन को घेरने लिए प्रयोग किया जानेवाला वनस्पति ।</ref> के दिवार लाँघते हुए
फूस की छतें गिराते हुए

चुईं चुईं चुईं चुईं
लकड़ी के पहिए में घूमते हुए
कहाँ पहुँचने के लिए चलता था
मुझे यक़ीन नहीं है
लडि़या में बैठी हुई ‘शान्ति’ की सवारी
और सवार क्यों लेते थे हाथ–हाथ में
देश का राष्ट्रीय झण्डा?

थी गाँव में भयानक मौनता
थी घुटन औ ऐठन
था महाजनों का अदब
वह भयानक मौनता की पुख्ता सबूत
मिलेगा अभी भी सालों पुराना चाबुक और खुकुरी के म्यान में
अनकण्टार खेत के चकले के नीचे
या अज्ञात झाड़ी के पीछे

उसी ‘शान्ति’ के गर्भ से जन्मी हुई
विद्रोही कवि हूँ मैं
और पली-बढ़ी हूँ उसी कुरूप चुप्पी से लड़ते-लड़ते
मेरे ऊपर लग सकता है ‘महान’ शान्ति भंग करने का आरोप
पूरे इतिहास को ‘डम्प’ करने के अपराध में
किसी भी समय जारी हो सकता है मेरे नाम में वारंट पूर्जी
और पहुँचाया जा सकता किसी भी क्षण हिरासत में

लेकिन मैं कह सकती हूँ दावे के साथ
कि
नहीं पढ़ेंगे अब बच्चे
चुपचाप से उस क्रूर मौनता के इतिहास को
नहीं देगा कोई ‘रामराज्य’ की उपमा
अंधकार साये के आतंक को

मित्रो!
मौन खड़ा होना
न करना कोई हरकत
न देना कोई प्रतिक्रिया
लगातार सहते रहना प्रहार या
सहना जोंकों और सापों का दंश
अगर होते हैं ये ही शान्ति के मायने
तो
शान्ति से कई–कई गुणा पसन्द करती हूँ मैं
जीने के कला से रंगा हुआ
युद्ध का रक्तिम सौन्दर्य!