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शब्दों से खिलवाड़ / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

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सम्पादक माँग रहा है मुझसे
नयी कविता
इधर मैं
लिखने के नाम में कर रहा हूँ
शब्दों से खिलवाड़

वह मुझे इस समय का प्रखर कवि मानता है
और बार बार माँगता रहता है कविता
ऐसा समझना उसका दृष्टिदोष भी नहीं है

लेकिन मालूम नहीं है उसको
सिर्फ़ एक ढोंगी कवि हूँ मैं
जो अपना चेहरा छिपाने के लिए
करता हूँ कविता का ढोंग

असल में
लिखता नहीं मैं कुछ भी कविता
केवल करता हूँ
शब्दों से खिलवाड़

मैं किसी अस्तित्व हीन सत्य को
ढूँढ़ता हुआ अभिनय करता हूँ
कविता में किसी और को न मिला हुआ कोइ दुर्लभ सत्य
मिलने का दावा भी करता हूँ

सच कहें तो
बहुत ही कमजोर है मेरा सामान्य ज्ञान
किसी सिगरेट के विज्ञापन में मुस्कराता हुआ युवक
और बोलिभिया के जंगल में
सिगार का कस खिंच रहा चेग्वेभेरा
अलग नहीं कर पाता इन दोनों में से
कौन है ज्यादा आकर्षक?
गोद में बच्चे को ले रही मदर टेरेसा
और एक ही मुस्कान से दुनिया हिलाने वाली प्रिंसेस डायना में
कौन है सच में सुन्दर?
नहीं जान पाता ठीक से

जमघटों में मैं कहता हूँ –
कविता से सम्भव है विप्लव
लेकिन हर सम्भावित विप्लव के आते
मस्त सो चुका होता हूँ शाम से भी पहले
मक्खी के पित्त से भी छोटा
डरपोक जिगर लेकर

मालूम नहीं मुझे
है कि नहीं मुझको
वैसे किसी विप्लव में विश्वास ?

कविता के नाम पर
ऐसे कितने सालों से कर रहाँ हूँ मैं खिलवाड़
किसी को भी नहीं मालुम !

लेकिन टूटने लगा है मेरे अन्दर ही अन्दर
झूठ का माया महल
और पराजित होने लगा हूँ इन दिनों
अपनी ही कविता की शक्ति से

ख़ुद ही खिंची हुई अश्वेत बालक की तस्वीर के आतंक से
ख़ुदकुशी करने वाला फ़ोटोग्राफ़र कि तरह
नंगे पैर भाग रहा हूँ मैं सडक पर
अपनी ही कविता के आतंक से

प्रिय सम्पादक!
ऊपर लिखे हुए जितनी भी बातें हैं
एक–एक सही, सच हैं
लिखना नहीं चाहता मैं अब कोई झूठ
करना नहीं चाहता कोई खिलवाड़
निकलना है मुझे शब्द विलास के खेल से
और उतारना है
अपना ही मुखौटा।