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स्थीर –2 / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

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अविचल
एक जगह
एक चेतना
एक शोक

एक ही भय
और
एक ही प्रकार की लय में
खड़ा होता रहता है वह

ख़त्म कर सकता है
एक आग्रह, एक स्थिरता के नाम
पूरा युग
कोसता है हवा को
अश्लील गाली देता है आँधी को
थूकता है नदी को
और अपना थूक लेकर बहने के लिए अभिशप्त बना देने के भ्रम में
करता है नदी के प्रति अट्टहास!

हरेक सन्देह को कहता है अराजक
परिन्दे के कलरव और झींगुर की आलाप को भी
समझता है आतंक का कोरस

आसमान में रहने के भ्रम में
पँख ही सिकुड़ने तक खड़ा हो रहा टिटिहरी जैसा
धन्य !
खड़ा हो पा रहा है वह
(और गिरा नहीं है अभी तक आसमान!)

करते–करते दौड़ने वालों को कटाक्ष
उड़ाते–उड़ाते चल रहे लोगों का मज़ाक़
खड़े हुए ज़मीन में ही
धसेंगे धीरे-से उसके पैर
सड़कर गिरेंगे टुकड़े–टुकड़े माँस-पिण्ड
चिलाउने<ref>नेपाल के पहाड़ी जंगल में मिलने वाला एक पेड़। इसके दाने कंचे के आकार के होते हैं।</ref> के दाने जैसी धरती में गिरेंगी एक दिन
उसकी आँखें

रहेगा खोखला पेड़ जैसा दोराहे में
अकेला खड़ा
औ एक दिन
छोटी-सी हवा भी
आसानी से और चुपचाप
गिरा देगी उसकी कंकाल

यह बात
और तो और
स्वयं उसे भी
नहीं होगी ज्ञात!