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अर्द्धरात्रि में वे / सुधीर सक्सेना

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अर्द्धरात्रि है ये
अर्द्धरात्रि में वे आते हैं
तेगों, तंंचों और त्रिशूलों से लैस

अर्द्धरात्रि में वे
रौन्दते हैं कलियाँ
रान्धते हैं माँस
घोंटते हैं आवाज़ों का गला
फूँकते हैं क़िताबें

अर्द्धरात्रि में वे
लगाते हैं ठहाके
गूँजते हैं उनके अट्टाहास

अर्द्धरात्रि में वे
होते हैं अपनी नंगई पे निहाल

बर्बरों के कुल में
नायकों के रक्त तिलक की वेला है
अर्द्धरात्रि