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रात का रतजगा / सुधीर सक्सेना
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अर्द्धरात्रि है ये
मगर कोई भी रात्रि आख़िरी रात नहीं
गुनगुनाता है शाइर
’दो उजालों के बीच सोती है
रात भी क्या अजीब होती है?’
फ़िलवक़्त रात है,
अन्धेरा है,
घड़ी की टिकटिक है
अन्धेरे की स्याह चिक है
रात का रतजगा है आज
रात की आँखों में नीन्द नहीं
भला, भोर के लिए
कब थी इतनी लालायित अर्द्धरात्रि?