भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात का रतजगा / सुधीर सक्सेना

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:15, 17 सितम्बर 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अर्द्धरात्रि है ये
मगर कोई भी रात्रि आख़िरी रात नहीं

गुनगुनाता है शाइर
’दो उजालों के बीच सोती है
रात भी क्या अजीब होती है?’

फ़िलवक़्त रात है,
अन्धेरा है,
घड़ी की टिकटिक है
अन्धेरे की स्याह चिक है

रात का रतजगा है आज
रात की आँखों में नीन्द नहीं

भला, भोर के लिए
कब थी इतनी लालायित अर्द्धरात्रि?