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फ़ासला / विष्णु खरे

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वर्णित मढ़ा-हुआ फ़ोटो मित्र-पत्रकार कुलदीप कुमार के ‘पायनियर’ कैबिन में लगा रहता था। यह कविता उस तस्वीर के अज्ञात फ़ोटोग्राफ़र को समर्पित।

थोड़ा झुका हुआ देहाती लगता एक पैदल आदमी
अपने बाएँ कन्धे पर एक झूलती-सी हुई वैसी ही औरत को ढोता हुआ
जो एक हाथ से उसकी गर्दन का सहारा लिए हुए है
जिसके बाएँ पैर पर पँजे से लेकर घुटने तक पलस्तर
दोनों के बदन पर फ़क़त एकदम ज़रूरी कपड़े
अलबत्ता दोनों नँगे पाँव
उनकी दिखती हुई पीठों से अन्दाज़ होता है
कि चेहरे भी अधेड़ और सादा रहे होंगे
दिल्ली के किसी चैंधियाते दिन में ली गई स्याह-सुफ़ैद तस्वीर थी वह
शायद 4.5 या सुपर 1200 एमएम टेलीलेंस वाले
किसी कैनन ए ई 1 या निकोर एफ़ 801 से खींची गई —
फ़ोटोग्राफ़र ने ख़ुद को मोहनसिंह प्लेस या खड़कसिंह मार्ग के
एम्पोरिअमों के सामने कहीं स्थित किया होगा
यह मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं कि ले जाई जा रही औरत
ढोने वाले आदमी की ब्याहता ही रही होगी
लेकिन दूर-दूर तक दोनों के साथ और कोई (आख़िर क्यों) नहीं
सड़क के बाएँ से उन्हीं की दिशा में जाता हुआ
एक ख़ाली ऑटो वाला कुछ उम्मीद से यह मंज़र देखता है
दाईं ओर के एम्बेसेडर और मारुति के ड्राइवर हैरत और कुतूहल से —
उन दोनों के अलावा सड़क पर और कोई पैदल नहीं है
जिससे धूप और वक़्त का अन्दाज़ा होता है
यह लोग जन्तर-मन्तर नहीं जा रहे
आगे चल कर यह राह विलिंग्डन अस्पताल पहुँचेगी
जहाँ शायद इन्हें पलस्तर कटवाना है
या क्या मालूम पाँव और बिगड़ गया हो
ऐसे लोगों के साथ पचास रोने लगे रहते हैं
एक तो यही दिखता है कि इनके पास कोई सवारी करने तक के पैसे नहीं हैं
या आदमी इस तरह आठ-दस रुपए बचा रहा है
जिसमें दोनों की रज़ामन्दी दिखती है
इनकी दुनिया में कहीं भी कैसा भी बोझ उठाने में शर्मिन्दगी नहीं होती
यह तो आख़िर घरवाली रही होगी
वह सती शव नहीं थी अपंग थी
यह एकाकी शिव जिसे उठाए हुए अच्छी करने ले जा रहा था
किसी का यज्ञ-विध्वंस करने नहीं
किस तरह की बातें करते हुए यह रास्ता काट रहे थे
या एकदम चुप्पी में क्या-क्या सोचते हुए
शायद किसी पेड़ का सहारा लेकर सुस्ताए हों
क्या रास्ते के इक्का-दुक्का लोगों ने इसे माँगने का एक नया तरीक़ा समझा
फिर भी अगर किसी ने कुछ दिया तो इनने लिया या नहीं
अस्पताल पहुँचे या नहीं
पहुँचे तो वहाँ क्या बीती
शायद उसने कहा हो
कब तक ले जाते रहोगे
यहीं कहीं पटक दो मेरे को और लौट जाओ
उसने जवाब दिया हो
चबर-चबर मत कर, लटकी रह
खड़कसिंह से विलिंग्डन बहुत दूर नहीं
लेकिन एक आदमी एक औरत को उठाए हुए
कितनी देर में वहाँ पहुँच सकता है
यह कहीं दर्ज नहीं है
मुझे अभी तक दिख रहा है
कि वह दोनों अब भी कहीं रास्ते में ही हैं
गाड़ियों में जाते हुए लोग उन्हें देख तो रहे हैं
लेकिन कोई उनसे रुक कर पूछता तक नहीं
बैठाल कर पहुँचाने की बात तो युगों दूर है