संवरिया रूठा है / बालस्वरूप राही
मधुबन में कैसे होली का त्यौहार मने
मन में राधा के मान, संवरिया रूठा है
इस ओर बांसुरी साधे बैठी मौन, उधर
पायल की रूनझुन पर बेहोशी छाई है
घायल गीतों के स्वर, अधरों पर मुहर लगी
परवशता की, यह कैसी होली आई है।
कैसे श्रृंगार करें नूतन मन के सपने
उन्मन-उन्मन-सा जीवन, दर्पण टूटा है।
जमना तट पर मरघट का सूनापन बिखरा
वंशी-वट पियराया जैसे कोई बिरही
कान्हा का पीताम्बर सिन्दूरी नहीं हुआ
चूनरी गोपियों की उजली बेदाग़ रही।
बेरंग पवन, ग़मगीन चमन, पनघट निर्जन
त्यौहार मनाने का यह रूप अनूठा है
ऐसे रंगों से क्या खेले कोई होली
जो रंग तो डालें वसन किन्तु मन रंगे नहीं
क्या खेले कोई फाग, बिलख अनुराग रहा
हम दुनिया भर में हुए किसी के सगे नहीं।
हर दिल में ज़हर घृणा का लहरें लेता है
यह नेह-प्रीत का सारा अभिनय झूठा है।
मधुबन में कैसे होली का त्यौहार मने
मन में राधा के मान, संवरिया रूठा है।