भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोचते ही रह गए / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:24, 23 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बालस्वरूप राही |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिन्हें जो चाहिए था मिल गया उनको या कम
हमें क्या चाहिए यह सोचते ही रह गये फिर हम

कभी हम रोशनी के साथ मीलों सैर कर आये
कभी लेकिन अंधेरे का समंदर तैर कर आये
कभी हम कंटकों की सेज पर आराम से सोये
कभी बस एक कोंपल के लिए हम रात भर रोये

कभी निरन्तर कि अंतर में निरन्तर आग जलती है
कभी लगता कि कोई कल्पना कोमल मचलती है
मरुस्थल में कभी हम सूर्य को ललकार देते हैं
कभी हम चांदनी तक में सहम कर सांस लेते हैं

नहीं कुछ भी नहीं है तय, नहीं कोई नहीं निश्चय
कहां मंज़िल मिलेगी या कहां कुछ देर लेंगे दम

सभी के वास्ते संसार माया है, तपस्या है
स्वयं को पर समझ सकना हमारी तो समस्या है
सुखी हैं हम कि सुख की कल्पना हम पर नहीं छाई
दुखी हैं हम कि हम को ज़िन्दगी जीनी नहीं आई

उभरती उम्र का रंगीन टुकड़ा यों न खोना था
हमें अब तक किन्हीं ऊंचाइयों के पास होना था
किसी के सामने अपनी व्यथा हम ने कहीं होती
असम्भव है परिस्थिति आज तक यह ही रही होती

बहुत से राजपथ हैं जो सफलता तक पहुंचते हैं
न जाने क्यों चुना हमने यही रस्ता, यही दिगभ्रम

हमें कुछ चाहिए महसूस ऐसा भी हुआ अक्सर
मगर वह चाहिए था सिर्फ अपनी खास शर्तों पर
अगर हमने समर्पण का कभी साहस किया होता
अगर हमने सफलता में ज़रा भी रस लिया होता

हमारे पास ये बेकार पछतावे नहीं होते
तरक़्क़ी ठोस मिलती सिर्फ बहकावे नहीं होते
रही होगी कमी हम में कभी किस में नहीं होगी
हमें उपलब्धियों ने क्यों कभी माना न सहयोगी।

अगर हम ने खुशामद की ज़रा सी खाद दी होती
हमारे बाग़ में भी ख़ूब खिलते फूल बेमौसम।