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जितना मुझे हंसाया / बालस्वरूप राही

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जितना मुझे हंसाया चढ़ती घाम ने,उस से अधिक रुलाया ढलती शाम ने
इसीलिए सुख के स्वागत सत्कार में, मेरे मन का पाहुन बहुत उदास है ।

मैं कुछ खोया खोया सा जो आज हूँ
अर्थ नहीं इस का तुम से नाराज़ हूँ
जैसा सुनना चाहो वैसा ही कहो
मैं तो केवल घाटी की आवाज़ हूँ।

अधिक न खींचो नरम सांस की डोर है,इतना तोड़ो नहीं हृदय कमज़ोर है।
नफ़रत क्या है मुझे मालूम पर,प्राण विहंस विष पीने का अभ्यास है।

चारों ओर कुहासे का सैलाब है
पांवों में गति से ज़्यादा ठहराव है
तीक्ष्ण शूल सी दुविधा मन को बींधती
जाने यह अंतिम या प्रथम पड़ाव है।

किस से पूछूँ मैं मंज़िल का रास्ता, शंका बहरी नेत्रहीन है आस्था
जितना संभ्रम धुंधलाता है आंख को, उस से ज़्यादा भटकाता विश्वास है।

इसीलिए खिलती है पल भर चांदनी
ताकि लगे अंधियारी अधिक डरावनी
मधुऋतु के हाथों संदेशा भेजतीं
घिरना चाहें जब कि घटायें सावनी।

सपने बोले-'शिशु मन सा मासूम है', कहा कल्पना ने -'चंदन का धाम है',
मेरा अनुभव लेकिन मुझ से कह रहा-'जीवन कोई व्यंग्य भरा उपहास है'।