भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्षितिज धुंधलाया है / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:40, 23 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बालस्वरूप राही |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राहें नहीं, क्षितिज धुन्धलाया है

जितने भी थे लक्ष्य व्यर्थ हो गये सभी
शब्दों का क्या दोष अर्थ खो गये सभी
सपने शायद घर पहुंचा देते
हम को सत्यों ने भटकाया है

बड़ी भीड़ है ढूंढें कहां अकेलापन
छूकर भाप अहम की धुंधलाती दर्पण
हम कोमल संगीत कहां रोपें
चारों ओर शोर उग आया है।

शंख, सीपियाँ, जुगनू, तितली, मोर, हिरण
खुश करते हैं केवल बच्चों के मन
सोनजुही की सुरभि नहीं भाती
हमें कैक्टस ने ललचाया है।

यह शताब्दी ऐसी जैसे अंध कुआं
दम घुट रहा हमारा कुछ कम करो धुआं
जिस ने द्वापर की हत्या कर दी
हम पर उसी प्रेत की छाया है।